'चौरासी' उपन्यास- प्रेम मिश्रित त्रासदी का जीवंत दस्तावेज!

सत्य व्यास द्वारा लिखित एक सौ साठ पृष्ठों का यह लघु उपन्या- स दो विपरीत भावों के द्वंद्व से नवीन विमर्श को प्रकट करता है।

यह उपन्यास, मनु (मनजीत), छाबड़ा साहब, ऋषि और बोकारो (कथा का गवाह शहर) नामक चार पात्रों के इर्द-गिर्द धूप-छाँवी घटनाओं का कलेवर निर्मित करता है।

उपन्यास का शीर्षक दो अर्थों में अपनी सार्थकता सिद्ध करता है।पहला,सन चौरासी की त्रासदी का मार्मिक विवरण देकर तथा दूसरा भारतीय मानस में बैठी 'चौरासी भुगतने' की उक्ति साकार करके।

कथा में एक ओर मनु का 'आये बड़े' जैसा भावुक और अबोध 'तकिया कलाम' है तो दूसरी ओर हत्या से बचने के लिए केश कटवाकर भागते बच्चे का वाक्य 'मुझे छोड़ दो मैंने क्या किया है' जैसा करुण वाक्य है।

एक ओर षठ पूजा का उल्लसित वातावरण है जिसमें 'ऋषि' जल में चुम्बन करके प्रेम को पराकाष्ठा तक ले जाता है तो दूसरी और प्रायोजित नर-संहार के 'अक्षम्य कृत्य' वाला वह दृश्य जो तमाम मानवीय संवेदनाओं को तार-तार कर देता है।

संक्षिप्त में कहे तो 'कामदी' और 'त्रासदी' के मिश्रण से रचा गया यह उपन्यास दो 'विपरीत ध्रुवों' वाले उपरोक्त वाक्य के अंतर्गत घटनाओं के वृत का निर्माण करता है।

कथा-वस्तु का आधार प्रेम है किन्तु जैसे-जैसे यह आधार विस्तृत होता है, तात्कालिक यथार्थ भी प्रकट होता है।

मनु और ऋषि की रुमानियत भरी कल्पनाओं के साथ राजनीति का घृणित ताप उत्पन्न होने लगता है जो प्रेम के तनु बीज को वृक्ष बनने से पूर्व ही लील जाता है।

कांग्रेस नेताओं की सरपरस्ती में सिख भाइयों के साथ बहुत ज़ुल्म हुआ था  | Photo: DNA India

रघुवीर सहाय की यह उक्ति कि ''रचना में सर्वधिक शिल्प वहीं होता है जहां वह बिलकुल नहीं दिखता’' इस उपन्यास पर पूर्णतः लागू होती है। इसमें कंटेंट रूपी धागे भले ही सामान्य प्रेम-कथा की भाँति हो किन्तु उसकी बुनावट और सजावट अभिनव शिल्प सृजित करती है।

यही कारण है कि उपन्यास की सामान्य- सी कथा सहजता से आकर्षित करती है। यहाँ तक कि पाठक स्वयं को कथा के पात्र के रूप में अनुभावित करता है।

मनु की चारित्रिक सक्रियता तथा स्नेहयुक्त चंचल भाषा उपन्यास में अनोखी छटा निर्मित करती है। उसका तकिया कलाम आये बड़ेवैसे तो आम प्रचलित है किन्तु सन्दर्भों के साथ किया गया उसका पठन हृदय में स्नेह-शर बनकर धँस जाता है।

लेखक की उक्ति कि समय प्रेम लिखता हैबिल्कुल सही है। क्योंकि बोकारो में बैठा उत्साहित 'समय' नियति की कलम से मनु और ऋषि का प्रेम लिख रहा था।

किन्तु वही समय रक्त सनी कलम लेकर दूरस्थ पंजाब में प्रेम को उजाड़ देने वाली घृणित पटकथा भी मंथर गति से लिख रहा था।

इंदिरा गांधी की हत्या का बदला लेने शुरु हुए थे सिख विरोधी दंगे | Photo: The Print 

दिन था 31 अक्तूबर।

मातमी स्वर! क्रंदन!! चीत्कारें!!!

नेता भैयाने सच ही तो कहा था बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है।' इंदिरा गाँधी राजनीति में एक बड़ा पेड़ थी जिनकी हत्या से सिक्ख रूपी धरती तो हिलनी ही थी।

बड़े नेता के उस पाषाण-उत्कीर्ण-वाक्यको साकार करने हेतु देश के अनेक स्थलों पर सिक्खों के माथे पर जबरन अपराधीऔर गद्दारजैसे तमगे चस्पा किये गए। दरिंदगी के साथ उन्हें मौत के घाट उतारा गया.

बोकारो कहाँ अछूता रहने वाला था? एक तरफ़ा दंगा वहाँ भी फैला गया, बीमारी की हद तक फैला गया। दंगाइयों ने जमकर वहशीपन दिखलाया। पाशविकता का नंगा नाच हुआ।

बोकारो ने अपने आंगन में रोंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य देखे। सिंदूर और सुहाग के प्रेम-पगे सपनों को लिखने वाली धरती अपने ही बंधुओं के रक्त का सैलाब बन गयी।

सिक्ख-बालक को गले में टायर डालकर जला दिया गया। अन्न- गोदाम में लड़की की मृत देह के साथ बलात्कार किया गया। सुरिंदर सिंह नामक वृद्ध व्यक्ति को जान की भीख मांगने पर भी नहीं छोड़ा गया।

प्रतिकार के नाम पर नाजायज कत्ले-आम हुआ। अनुयायित्व सिद्ध करने के नाम पर जघन्य दुष्कर्म हुए। समाज क्रन्दित था राजनीति अट्टहास कर रही थी।

उपन्यास का एक सौ बाईस व तेईस वाँ पृष्ठ चीख-चीखकर उन जघन्य, नर-पिशाची दुष्कृत्यों की गवाही देता है।

पुनश्च,

जिस 'चौरासी भुगतने' का उल्लेख ऊपर किया गया उसे मनु ने प्रेम-सिक्त सपने खोकर भुगता तो ऋषि ने अपनी खोई हुई मानवीयता के अपराध में।

छाबडा साहब ने अपने ही देश में अन्याय का दंश झेलकर तो बोकारो ने प्रेम लिखने वाली अपनी भूमि पर कत्ले-आम तथा लूटपाट के न धुलने वाले दाग लेकर।

सभी ने भुगता, निर्दोष होकर भी भुगता।

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~दिनेश सूत्रधार  |  शिक्षक एवँ लेखक

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