एक ख़ास एजेंडे के तहत हो रहे कर्ण के महिमा मंड़न पर एक साहित्यकार के जायज़ सवाल

कर्ण को लेकर हमारे हिन्दी साहित्य के पिछले शतक में कुछ अधिक लगाव रहा है! 

इस लगाव के पीछे कारण समझ नहीं पाया कभी! संस्कृत साहित्य में कर्ण के जीवन को लेकर अन्यथा परिकल्पना मुझे दिखी नही। महाभारतकार ने कर्ण को लेकर जो लिखा है वह हमारे पिछली शताब्दी के हिन्दी रचनाकर्म के उलट लगता है। महाभारत में कर्ण चरित्र तटस्थ रचा गया है। उसकी चारित्रिक कमियाँ इतनी है कि मन में कर्ण के प्रति अलगाव बना रहता है। संस्कृत में महाकवि भास रचित कर्णभारम् भी कर्ण की पीड़ा को चित्रित करता है लेकिन उसका कथानक कुरुक्षेत्र युद्ध के मध्य का है पूर्ण चरित्र प्रस्तुत नही हुआ। मेरी समस्या है कि मैंने महाभारत पहले पढ़ा और हिन्दी के रचनाकारों के कर्ण विषयक साहित्य बाद में, इसलिए मेरे मन में कर्ण की छवि एक खलपात्र के रूप में ही है। महाभारत में दुर्योधन की ठुकुरसुहाती करता हुआ कर्ण, द्रौपदी का अपमान करता हुआ कर्ण, अर्जुन से पांच बार हारता हुआ कर्ण, युद्ध कौशल में निपुण होकर भी अंग देश भेंट में पाता हुआ कर्ण मेरे मन में स्थापित न हो पाया, मेरा मन ही छोटा है क्या करूँ?

Image: Times of India

इधर हिन्दी के जिन विगत शताब्दी के विद्वानों ने कर्ण पर कलम उठाई है उनमें महाकवि दिनकर जी का रश्मिरथी, शिवाजी सावंत का मृत्युंजय, वेदप्रकाश कम्बोज जी का कुंती पुत्र कर्ण, मनु शर्मा जी की कर्ण की आत्मकथा, पं. रामनारायण चतुर्वेदी जी का महावीर कर्ण, लक्ष्मीनारायण मिश्र जी का सेनापति कर्ण आदि है तो अंग्रेजी में रणजीत देसाई का कर्ण द ग्रेट वॉरियर है। इन पुस्तकों की छाया में आम जनमानस में कर्ण के चरित्र का महान पक्ष टंकित हुआ है। संस्कृत महाभारत सामान्य व्यक्ति पढ़ नही पाता, उसके लिए सरलीकृत हिन्दी रचनाएँ उपलब्ध हो उसे पढ़कर ही भावभूमि तैयार होती है।
यह सब लिख रहा हूँ इसलिए कि कर्ण के उच्च कुल, वर्ण, गोत्र और जाति में जन्म लेने के बाद भी उसके सूत (अश्वपालक) रह जाने की पीड़ा कर्ण से अधिक हिन्दी के मनीषियों को है। मूल महाभारत में कुल का उल्लेख है और यदि है तो क्षत्रिय होने की वर्णव्यवस्था बस, जाति का उल्लेख नही है क्योंकि तब जाति का प्रादुर्भाव नही हुआ था। लेकिन हिन्दी मनीषियों ने अपनी रचनाओं में जाति का उल्लेख कर महाभारत कालीन समय को तत्कालीन (या वर्तमान) परिवेश में ढालने का प्रयास किया प्रतीत होता है। यह प्रयास भी तब जब भारत के प्रथम पुरुष नहेरू जी अपनी बिटिया पारसी युवक फिरोज जी से ब्याह रहे थे तब लेखक लोग कर्ण की जाति को लेकर चिंतित हो रहे थे। कर्ण के प्रति यह पीड़ा क्यों उन लोगों में उपजी यह मनोविश्लेषणात्मक खोज का विषय है। बीते सत्तर वर्षों से कर्ण के प्रति ज्वार उमड़ घुमड़ आता है कि हाय "सूतो वा सूत पुत्रो वा" कर्ण कितना बलशाली था कि उसके पौरुष की उस देशकाल में परख न हुई बेचारा छल से मारा गया! (अभिमन्यु को छल से मारना विस्मृत कर देते हैं।) हमारे हिन्दी विद्वानों का बस चलता तो (उनके कर्णमोह का देख प्रतीत होता है) वे वेदव्यास जी को ऐसा लिखने ही न देते! लेकिन दुर्भाग्य से वेदव्यास जी और इनमें सहस्राब्दियों का अन्तर है।


जो लोग जातिगत आरक्षण के विरूद्ध यह तर्क प्रस्तुत करते नही थकते कि "पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो मेरे भुजबल से।" यानी योग्यता ही एकमात्र आधार होना चाहिए! आगे कहते हैं - "पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर, 'जाति-जातिका शोर मचाते केवल कायर, क्रूर।” (ये पंक्तियाँ जब लिखी जा रही थी (१९५२ के पूर्व) तब राष्ट्रकवि जी के परममित्र आरक्षण की व्यवस्था संविधान में लागू कर रहे थे।) इसका तात्पर्य था कि जाति के आधार पर कायरता प्रतिष्ठित की जाती रही है। लेकिन वे ही जब कर्ण के क्षत्रिय होकर सूत (अश्वपालक) के रूप में पालित होने को लेकर क्षुब्ध हो उठते हैं। कि हाय हाय बेचारे कर्ण को सूत के घर क्यों पाला गया? स्पष्ट नही होता कि हिन्दी मनीषी कर्ण की योग्यता के साथ हैं या उच्चकुल में जन्म लेने के बाद भी ओबीसी में पले होने के कारण हुए अन्याय के विरुद्ध खम ठोक रहे हैं?

अधिक हिन्दी मनीषी कर्ण के सूतपुत्र के रूप में पाले जाने पर बड़े विचलित रहे हैं। मैं इन सबके विरूद्ध हूँ कि जिस बच्चे को जन्मजात अपने माता-पिता का पता नहीं है जिसने पाला है उन्हें ही माता-पिता के रूप में मानता आया है उसे यदि कुल के बारे में किसी तीसरे के द्वारा पूछा जाता है तो अश्वपालक अधिरथ और राधा कहने में संकोच क्यों हो रहा है? यह संकोच अधिरथ-राधा के प्रति अन्याय नही है क्या? रंगशाला में अपने कुल का वर्णन न करना और मौन होकर उसे लज्जा जैसा अनुभव करना नितान्त गलत नहीं? इससे सिद्ध नही होता कि कर्ण की रंगशाला में प्रथम प्रस्तुति ही गलत थी? (एवमुक्तस्य कर्णस्य व्रीड़ावनतमाननम्! वभौ वर्षाम्बु विक्लिन्नम् पद्ममागलितम् यथा!) व्रीड़ा (लज्जा) से आनन नत क्यों हो गया भई? तब तो कर्ण से अच्छा हमारे गाँव के सफाईकर्मी का बेटा हुआ जिसने कभी अपने पिता को लेकर मुँह नीचा न किया! आप कहेंगे कि यह बात वेदव्यास जी से पूछो! उन्ने ही लिखा है ऐसा! जी, मैं इसीलिए लिख रहा हूँ कि जिन्होंने कुल और वर्ण को लेकर चर्चा अपने ग्रन्थ में की उसे आपने जाति में अन्तरित किस हेतु किया? ठीक है आपकी रचनागत स्वतंत्रता है! लेकिन प्रश्न तो रहेगा न कि आप योग्यता को लेकर चिन्तित हैं या कर्ण के उच्चकुल के बाद भी निम्नकुल में पालन को लेकर?


एक बात और विचार योग्य है - कर्ण सूर्यपुत्र है तो पाण्डव क्यों कहा जाए? उसे क्षत्रिय मानने की जगह देवपुत्र ही माना जाना चाहिए! कर्ण कुमारी कुंती का पुत्र है इसलिए क्षेत्रज पुत्र होने का भी तो पात्र नही! जो आरोप भरी रङ्गशाला में दुर्योधन आचार्य द्रोण और पांडुपुत्रों पर लगाते हुए उनकी उत्पत्ति पर प्रश्न करता है(आचार्य कलशाज्जातो द्रोणः शस्त्रभृताम् वरः, गौतमस्यान्ववाये च शरस्तम्बाच्च गौतमः!), तो आचार्य कृप ने तो मात्र घोषित नियमानुसार कुल का विवरण पूछा था, आरोप तो लगाया न था, कर्ण को तनकर कहना चाहिए था कि मैं अधिरथ का पुत्र हूँ, यदि यह गर्वित घोषणा की होती तो संभव है प्रतिद्वन्द्व का कोई रास्ता निकल जाता!
कर्ण एक साधारण परिचय के व्याज पर अपनी मूर्खता के चलते भेंट के रूप में अंगदेश का राजा बन जाता है जिसमें दुर्योधन की धूर्तता स्पष्ट दिखती है वह वास्तव में तो दुर्योधन का दिया हुआ दान नही बल्कि उत्कोच है जो अर्जुन के विरूद्ध सदैव मुहमाँगी शत्रुता की ढाल बनकर उपभुक्त हुआ। इसमें लाभ किसका था? दुर्योधन ने समय पर निवेश कर सदैव के लिए एक दास क्रय किया और कुछ नहीं! कर्ण रङ्गशाला के उधार को प्राण देकर भी चुकाने के लिए उद्धत दिखता है तो ऐसा उधार लेना मूर्खता नही तो क्या है?

मृत्युंजय में सावंत जी जो वर्णन करते हैं उसमें दुर्योधन और कर्ण के प्रथम मिलन के अवसर पर जो प्रसंग उद्धृत है उस परिस्थिति में तो कर्ण को दुर्योधन से क्रुद्ध होकर उससे शत्रुता रखनी चाहिए थी, लेकिन कथाओं के आरोह अवरोह में अकारण ही कर्ण अर्जुन के प्रति एकांगी विष धारण किए बैठा है। महाभारत में कर्ण की अत्युक्ति के विरूद्ध ही अर्जुन ने संतुलित प्रत्युत्तर दिए हैं, कही भी दर्प युक्त कुवचन का दोषी अर्जुन नही दिखाई देता!

वर्तमान में जब तालिबान के कुत्सित राक्षसी कुकृत्यों के पश्चात भी लोग उनका पक्ष लेते दिखते हैं और प्रतिदिन उनके बचाव हेतु कुतर्क करते लिख रहे होते हैं तब सच के कुछ प्रसंग तर्क आधारित लिखने का दुस्साहस करना पड़ता है! मेरे लेख में कही भी किसी रचनाकार के प्रति असम्मान नही है, मैं उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर विमर्श कर रहा हूँ, आपको बाहर ढूँढने न जाना पड़े, इसलिए संलग्न चित्रों में महाभारत, मृत्युंजय के प्रसंग दे रहा हूँ। (रश्मिरथी के उद्धरण तो प्रायः आमजन के मुखाग्र है ही) इसमें यह वाद भी प्रस्तुत न माना जाए कि मैं ही सही हूँ। लेकिन जो है उसे स्वीकार कीजिये यह अनुरोध अवश्य है।

ज्ञातव्य है कि कर्ण ने महाभारत अनुसार आचार्य द्रोण से शिक्षा ग्रहण की थी, वहीं से अर्जुन के प्रति कर्ण मन में विषलता पनपी होगी, पश्चात वह अधिक बड़का धनुर्धर बनने आचार्य परशुराम के पास चला गया। फिर भी महाभारत में ही प्रस्तुत चित्र में कर्ण के रङ्गशाला में प्रवेश के समय आचार्य द्रोण और कृप के प्रति व्यवहार को देखिए (स निरीक्ष्य महाबाहुः सर्वतो रङ्गमडलम्। प्रणामम् द्रोणकृपयोर्नात्यादृतमिवा करोत्॥), कही भी वह योग्य व्यवहार करता प्रतीत नही होता! इसलिए दानवी प्रवृत्ति के इस व्यक्ति को दानवीर मानकर उसका सम्मान मेरे मन में नही उपजता तो मैं अपने मन के छिछले - उथले होने के अपराध को स्वीकार करता हूँ!


‍~गजेंद्र कुमार पाटीदार, साहित्यकार,  निमाड़, मध्यप्रदेश  


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ