कर्ण को लेकर हमारे हिन्दी साहित्य के पिछले शतक में कुछ अधिक लगाव रहा है!
इस लगाव के पीछे
कारण समझ नहीं पाया कभी! संस्कृत साहित्य में कर्ण के जीवन को लेकर अन्यथा
परिकल्पना मुझे दिखी नही। महाभारतकार ने कर्ण को लेकर जो लिखा है वह हमारे पिछली
शताब्दी के हिन्दी रचनाकर्म के उलट लगता है। महाभारत में कर्ण चरित्र तटस्थ रचा
गया है। उसकी चारित्रिक कमियाँ इतनी है कि मन में कर्ण के प्रति अलगाव बना रहता
है। संस्कृत में महाकवि भास रचित कर्णभारम् भी कर्ण की पीड़ा को चित्रित करता है
लेकिन उसका कथानक कुरुक्षेत्र युद्ध के मध्य का है पूर्ण चरित्र प्रस्तुत नही हुआ।
मेरी समस्या है कि मैंने महाभारत पहले पढ़ा और हिन्दी के रचनाकारों के कर्ण विषयक
साहित्य बाद में, इसलिए मेरे मन में
कर्ण की छवि एक खलपात्र के रूप में ही है। महाभारत में दुर्योधन की ठुकुरसुहाती
करता हुआ कर्ण, द्रौपदी का अपमान करता हुआ कर्ण, अर्जुन से पांच बार हारता हुआ कर्ण, युद्ध कौशल में
निपुण होकर भी अंग देश भेंट में पाता हुआ कर्ण मेरे मन में स्थापित न हो पाया,
मेरा मन ही छोटा है क्या करूँ?
जो लोग जातिगत आरक्षण के विरूद्ध यह तर्क प्रस्तुत करते नही थकते कि "पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो मेरे भुजबल से।" यानी योग्यता ही एकमात्र आधार होना चाहिए! आगे कहते हैं - "पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर, 'जाति-जाति’ का शोर मचाते केवल कायर, क्रूर।” (ये पंक्तियाँ जब लिखी जा रही थी (१९५२ के पूर्व) तब राष्ट्रकवि जी के परममित्र आरक्षण की व्यवस्था संविधान में लागू कर रहे थे।) इसका तात्पर्य था कि जाति के आधार पर कायरता प्रतिष्ठित की जाती रही है। लेकिन वे ही जब कर्ण के क्षत्रिय होकर सूत (अश्वपालक) के रूप में पालित होने को लेकर क्षुब्ध हो उठते हैं। कि हाय हाय बेचारे कर्ण को सूत के घर क्यों पाला गया? स्पष्ट नही होता कि हिन्दी मनीषी कर्ण की योग्यता के साथ हैं या उच्चकुल में जन्म लेने के बाद भी ओबीसी में पले होने के कारण हुए अन्याय के विरुद्ध खम ठोक रहे हैं?
अधिक हिन्दी
मनीषी कर्ण के सूतपुत्र के रूप में पाले जाने पर बड़े विचलित रहे हैं। मैं इन सबके
विरूद्ध हूँ कि जिस बच्चे को जन्मजात अपने माता-पिता का पता नहीं है जिसने पाला है
उन्हें ही माता-पिता के रूप में मानता आया है उसे यदि कुल के बारे में किसी तीसरे
के द्वारा पूछा जाता है तो अश्वपालक अधिरथ और राधा कहने में संकोच क्यों हो रहा है? यह संकोच अधिरथ-राधा के प्रति अन्याय नही है
क्या? रंगशाला में अपने कुल का वर्णन न करना और मौन होकर उसे
लज्जा जैसा अनुभव करना नितान्त गलत नहीं? इससे सिद्ध नही
होता कि कर्ण की रंगशाला में प्रथम प्रस्तुति ही गलत थी? (एवमुक्तस्य
कर्णस्य व्रीड़ावनतमाननम्! वभौ वर्षाम्बु विक्लिन्नम् पद्ममागलितम् यथा!) व्रीड़ा
(लज्जा) से आनन नत क्यों हो गया भई? तब तो कर्ण से अच्छा
हमारे गाँव के सफाईकर्मी का बेटा हुआ जिसने कभी अपने पिता को लेकर मुँह नीचा न
किया! आप कहेंगे कि यह बात वेदव्यास जी से पूछो! उन्ने ही लिखा है ऐसा! जी,
मैं इसीलिए लिख रहा हूँ कि जिन्होंने कुल और वर्ण को लेकर चर्चा
अपने ग्रन्थ में की उसे आपने जाति में अन्तरित किस हेतु किया? ठीक है आपकी रचनागत स्वतंत्रता है! लेकिन प्रश्न तो रहेगा न कि आप योग्यता
को लेकर चिन्तित हैं या कर्ण के उच्चकुल के बाद भी निम्नकुल में पालन को लेकर?
वर्तमान में जब तालिबान के कुत्सित राक्षसी कुकृत्यों के पश्चात भी लोग उनका पक्ष लेते दिखते हैं और प्रतिदिन उनके बचाव हेतु कुतर्क करते लिख रहे होते हैं तब सच के कुछ प्रसंग तर्क आधारित लिखने का दुस्साहस करना पड़ता है! मेरे लेख में कही भी किसी रचनाकार के प्रति असम्मान नही है, मैं उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर विमर्श कर रहा हूँ, आपको बाहर ढूँढने न जाना पड़े, इसलिए संलग्न चित्रों में महाभारत, मृत्युंजय के प्रसंग दे रहा हूँ। (रश्मिरथी के उद्धरण तो प्रायः आमजन के मुखाग्र है ही) इसमें यह वाद भी प्रस्तुत न माना जाए कि मैं ही सही हूँ। लेकिन जो है उसे स्वीकार कीजिये यह अनुरोध अवश्य है।
ज्ञातव्य है कि
कर्ण ने महाभारत अनुसार आचार्य द्रोण से शिक्षा ग्रहण की थी, वहीं से अर्जुन के प्रति कर्ण मन में विषलता
पनपी होगी, पश्चात वह अधिक बड़का धनुर्धर बनने आचार्य
परशुराम के पास चला गया। फिर भी महाभारत में ही प्रस्तुत चित्र में कर्ण के
रङ्गशाला में प्रवेश के समय आचार्य द्रोण और कृप के प्रति व्यवहार को देखिए (स
निरीक्ष्य महाबाहुः सर्वतो रङ्गमडलम्। प्रणामम् द्रोणकृपयोर्नात्यादृतमिवा करोत्॥),
कही भी वह योग्य व्यवहार करता प्रतीत नही होता! इसलिए दानवी
प्रवृत्ति के इस व्यक्ति को दानवीर मानकर उसका सम्मान मेरे मन में नही उपजता तो
मैं अपने मन के छिछले - उथले होने के अपराध को स्वीकार करता हूँ!
~गजेंद्र कुमार पाटीदार, साहित्यकार, निमाड़, मध्यप्रदेश
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