पीरियड्स के खून से सनी क्रांति ज़्यादा लाल सूर्ख होती है !

          किसी लड़की को पीरियड्स हो रहे हों और वह उसी वक़्त किसी दोस्त के घर जाना चाहे या भगवान के घर जाना चाहे, तो उसे ग़लत कहने वाले नालायक हैं. लेकिन किसी लड़की को पीरियड्स हो रहे हों या न हो रहे हों, और वह माहवारी के ख़ून से सना हुआ सैनिटरी नैपकिन किसी कूड़ेदान में फेंकने के बजाय अपने हाथ में (या बैग में) लेकर अपने किसी दोस्त के घर जाना चाहे या भगवान के घर जाना चाहे या किसी विकट स्त्रीवादी क्रांतिकारी/क्रांतिकारिणी के घर ही क्यों न जाना चाहे, वह परले दरजे की चरम-नालायक है.
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माहवारी का ख़ून या Menstrual Discharge आख़िरकार अनुपयोगी हो चुके अनिषेचित डिम्ब के कचरे के सिवा कुछ नहीं है, जिसे शरीर ख़ुद-ब-ख़ुद बाहर निकाल देता है - जैसे वह इंसानी पसीने, मूत्र, मल या एक तयशुदा वक़्त के बाद वीर्य जैसे कचरे को बाहर निकाल देता है. माहवारी का ख़ून कचरा है और जैव कचरा है, जिसे कचरा पेटी में और वह भी ऐहतियात के साथ फेंका जाना चाहिए - जैसे चिकित्सालयों में बलग़म या ख़ून से सनी पट्टियाँ, ऑपरेशन के बाद बचे माँस के अवशेष, रोगियों का मल-मूत्र, कटे हुए प्लास्टर या फिर घरों में इस्तेमाल किए हुए कॉन्डम फेंके जाते हैं. और कोई उसे लेकर हाथ में सार्वजनिक रूप से घूमना चाहे तो उसके साथ वही सुलूक़ होना चाहिए जो अपना मल किसी घड़े में लेकर घूम रहे इंसान के साथ होना चाहिए - चाहे स्त्री हो या पुरुष. क्योंकि वीभत्स्य और जुगुप्सा लिंग निरपेक्ष होते हैं और हमेशा रहेंगे.


इसलिए औरत की माहवारी के ख़ून को 'महानता का प्रतीक' या 'क्रांति की स्याही' बताने या समझने वाले ऊपर लिखे गए दोनों नालायकों के ठीक ऊपर खड़े परम-नालायक ही हैं. सिवाय चिकित्साशास्त्रीय शोध के महत्व के (जो, देखा जाए तो, इंसानी पसीने, मूत्र, मल या पुरुष के वीर्य का भी उतना ही है), माहवारी के ख़ून में कुछ भी परालौकिक या अतिमहान गुण नहीं रचे-बसे होते. अगर उसकी उर्वरता के क़सीदे पढ़ता है कोई, तो उसे याद रखना चाहिए कि पुरुष का वीर्य भी उतना ही उर्वर होता है, लेकिन उसे 'महानता का प्रतीक' या 'क्रांति की स्याही' बताने की नालायकी करने वाला कोई पुरुष तो अब तक पैदा नहीं हुआ इस दुनिया में, जबकि यहाँ बड़े-बड़े क्रांतिकारी पैदा होकर मर गए.

वैसे भी, अगर औरत की माहवारी के ख़ून में कुछ 'परालौकिक शक्ति' या 'क्रांति की चिंगारी' छुपी होती, तो सभी विकट स्त्रीवादियों के घर में उसे नाली में नहीं बहाया जाता, बल्कि फ्रेम में जड़ कर दीवार पर टाँगा जाता. मैं अनेकों घोर धुरन्धर स्त्रीवादियों के घर में गया हूँ और बिल्कुल अन्दर तक गया हूँ, मुझे आज तक उनमें से किसी के भी घर की दीवार पर गर्व और शान के साथ फ्रेम में जड़ा हुआ 'माहवारी का ख़ून' दिखाई नहीं दिया - एक के भी नहीं.
-अरविंद अरोड़ा, फिल्म क्रिटिक एवँ लेखक